शनिवार, 29 अप्रैल 2023

मन का संतोष स्वर्ग प्राप्ति से बढ़कर है / Contentment of mind is more than attainment of heaven

मन का संतोष स्वर्ग प्राप्ति से बढ़कर है / Contentment of mind is more than attainment of heaven


प्रस्तावना / Preface


सन्तोष ,सन्तुष्टि या तृप्ति यह सब एक ही है और यह जिस इंसान  के अन्दर होता है वह इन्सान दुनिया में सबसे ज्यादा सुखी होता है क्योंकि जिस इंसान के.मन में सन्तुष्टि अपना घर बना लेती है उस इन्सान के लिए जीवन स्वर्ग प्राप्त करने से भी बढ़कर अनमोल हो जाता है क्योंकि सन्तोष में स्वयं परमात्मा का निवास करते है और जिसने परमात्मा को प्राप्त कर लिया हो उसे और किसी चीज का मोह नहीं हो सकता है क्योंकि जहा परमात्मा निवास करते है वहा पर जीवन में सिर्फ आनंद ही आनंद होता है। सन्तोष क्या है ,कैसे प्राप्त होता है ,जीवन में इसका आधार क्या है और इसे हम कैसे समझ सकतें है ऐसे बहुत से सवाल लोगों के मन में होते है लेकिन उत्तर नहीं मिलता है और उत्तर मिलेगा भी नहीं क्योंकि हमारे मन में संतुष्टि की भावना नहीं है जिसके लिए इन्सान की शारीरिक और मानसिक मनोवृति जिम्मेदार है क्योंकि सन्तुष्टि हर चीज के परे है जो हमें प्रेम ,स्नेह ,सदभाव और शालीनता से प्राप्त होती है। 





सन्तुष्टि का अर्थ क्या है / what is the meaning of satisfaction


संतोष किसे कहते है इसका अर्थ क्या है और प्राणी के जीवन में इसका महत्व क्या है ऐसे बहुत से प्रश्न होते है जिनका जवाब नहीं मिलता क्योंकि हम मानसिक रूप से सन्तुष्टि का अर्थ समझने में सक्षम नहीं होते है। सन्तुष्टि कोई खरीदने या बेचने की चीज नहीं है जो हमें कहि भी मिल जाएगी। जब हमारा मन हमेशा ईश्वर को याद करें और उसी में लीन रहें ,जो इंसान सदाचार -शिस्टाचार के तहत हमेशा अपना व्यवहार प्रकट करें ,जो इन्सान सिर्फ वर्तमान में जीना सीखें ,जो इंसान अपने आप से अपने आप में संतुष्टि रखें ,जो व्यक्ति विनम्रता और प्यार से अपने जीवन को लोगों के लिए सौप दे और जो इन्सान अहिंसा परमों धर्मा का पालन करते हुए अपने जीवन को बिताता है ऐसा व्यक्तित्व वाला इंसान जीवन में  परम् सन्तोष को प्राप्त करता है क्योंकि ऐसा इंसान ही संतोष का अर्थ समझता है। 


संतोष का अर्थ क्या है यह समझ पाना आज के व्यक्ति के बस से बाहर है क्योंकि आज लोग किसी ना किसी चीज के लिए बेचैन है और उस बेचैनी के कारण व्यक्ति अपना शारीरिक और मानसिक सन्तुलन खों रहें है। हम देखतें है कि लोग बिना किसी बात के एक -दूसरे को अपना दुश्मन बना लेते है क्योंकि लोगों में शहनशीलता नहीं है। आज लोग अपने स्वार्थ के लिए सबकुछ करने को तैयार है क्योंकि ऐसे लोगों की मनोवृति नष्ट हो चुकी है। सन्तुष्टि हमारे जीवन को एक आयाम प्रदान करती है जो हमें हमारे अस्तित्व से पहचान करवाती है। संतोष किसी अभिप्राय का अंग नहीं होता है बल्कि यह सन्तुष्टि और तृप्त होने का भाव प्रकट करने का साधक है हमें बतलाता है की हमें अपने कार्य में संतोष है या हम संतुस्ट है क्योंकि जीवन का अभिप्राय यही है की हमारा मन और मश्तिष्क जब हमारे किसी कार्य से प्रसन्न होता है तो उसी में हमारा सन्तोष व्यक्त होता है और जीवन में संतोष का अर्थ होता है। 


जीवन में संतोष का आधार क्या है / what is the basis of satisfaction in life


सन्तोष प्राणिजति की प्रसन्नता का आधार है जो एक इन्सान को  खुशी और सुकून पहुंचाने का माध्यम है लेकिन बेचैन लोग इसका मतलब कभी नहीं समझ सकतें है क्योंकि ऐसे लोगों का भगवान पैसा और अपना स्वार्थ साधनें वाले एवं इधर -उधर भागने इन्सानों को कभी भी सन्तोष नहीं मिल सकता है मगर ऐसे लोगों के लिए ऐसी जिन्दगी ही मायने रखती है। इन्सान को अगर सन्तोष को ही अपने जीवन का आधार बनाना है तो इंसान के अंदर पुरूस्वार्थ का भाव होना चाहिए क्योंकि पुरूस्वार्थ ही इंसान को सन्तोष के प्रति उसके आधार को समझा सकता है। इंसान को अगर अपने जीवन में प्रसन्नता चाहिए तो उसको अपने मन और मश्तिष्क को दूसरों के प्रति साफ करना होगा और लोगों के दुःख को अपना समझना उनकी भलाई के लिए कार्य करने होंगे। जब हम उनके प्रसन्न चेहरे को देखेंगे उससे जो ख़ुशी हमें मिलेगी वही हमारा सन्तोष होगा। 


हमारे वेद -पुराण और ग्रंथ ,हमारे ऋषि -मुनि और हमारे पूर्वज हमें यह बतलाते है की जीवन में सन्तोष परम् सुख का आधार है। जो हमें परमपिता परमात्मा से जोड़ता है और परमात्मा हमसे कहते है की व्यक्ति के जीवन में हर कदम चुनौतीपूर्ण होता है इसलिए जो व्यक्ति संघर्षपूर्ण जीवन को जीता है सही मायने में संतोष उसको ही प्राप्त होता है क्योंकि यह जीवन अपने आपको जानने के लिए और परोपकार के लिए मिला है। जिस व्यक्ति ने इस जीवन का मोल समझ लिया वास्तव में सन्तुष्टि उसी व्यक्ति को प्राप्त होती है। उस इन्सान के अंदर फिर किसी भी चीज के प्रति मोह ,माया ,लोभ और स्वार्थ नहीं होता है क्योंकि वह व्यक्ति परम् आनंद को प्राप्त कर लेता है मतलब परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। संतोष को जीवन का आधार बनाने वाले लोग तृप्ति को प्राप्त कर लेते है और तृप्ति को प्राप्त करने वाले लोगों में किसी भी चीज की इच्छा नहीं रह जाती है। 


जीवन में संतोष कैसे रखें / how to be satisfaction in life 


हमें अपनी जिन्दगी में सन्तुष्ट होने के लिए सबसे पहले वर्तमान में जीना सीखना होगा क्योंकि भूतकाल और भविष्यकाल हमें जीवन में हमेशा बेचैन रखते है। जिस वजह से हम जीवन को खुश होकर नहीं जी पाते है। संतोष को पाने के लिए हमारी दिनचर्या जीवन में अहम भूमिका निभाती है। जो व्यक्ति सुबह से उठकर नित्य क्रिया करके पूजा -पाठ ,भजन -कीर्तन और योग साधना को महत्व देता है और जो इंसान अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में प्रभु के प्रति आस्था रखता है और भगवान के लिए समर्पित रहता है उसके अंदर अपने आप ख़ुशी झलकती है जो उसके चेहरे पर सन्तोष के रूप में नजर आती है क्योंकि ऐसे इन्सान के विचार सकारात्मक होते है जिसके कारण उसके साथ हमेशा दैवीय शक्तियां होती है। जो हमेशा उसे सही राह दिखाती है जिससे उसका जीवन आनंदित और प्रफुलित रहता है। 


हमें अगर संतोष को समझना है तो हमें उस मुस्कराते हुए बच्चें को देखना चाहिए जो सोते हुए भी अपने चेहरे पर मुस्कराहट रखता है क्योंकि वह बच्चा किसी भी चीज के प्रति चिंतित नहीं होता है जो अपनी ही दुनिया में मस्त होता है। आज भी दुनिया में ऐसे लोग है जो बिना किसी सुख -सुविधा के अपना जीवन वितीत कर रहें है क्योंकि वह लोग अपने जीवन का महत्व समझते है वह जानते है कि प्रभु ने उन्हें यह जीवन क्यों प्रदान किया है। इसलिए ऐसे लोग ज्यादातर भीड़ -भाड़ से दूर जंगलों और पहाड़ों में रहते है और जो प्राकृतिक संसाधनों के साथ अपना जीवन बिताते है और भगवान की भक्ति में लीन रहतें है। संतोष जीवन को बलिष्ठ ,कर्तव्यपूर्ण ,आस्थावान ,आध्यात्मिक ,शिष्टाचार ,सकारात्मक मानसिकता  और दूसरों के लिए जीवन जीने को महत्व देता है क्योंकि सन्तोष रखने वाले व्यक्तियों को इन्ही सब चीजों से संतुष्टि मिलती है। 


उपसंहार / Epilogue


संतोष ,संतुष्टि या फिर तृप्ति इन सभी शब्दों का हमें निष्कर्ष यह मिलता है कि जिस इंसान के अंदर संतोष होता है जिससे उसको संतुष्टि प्राप्त होती है और हर चीज से तृप्त होने वाला इंसान कभी बेचैन नहीं हो सकता है क्योंकि ऐसे इंसानों के अंदर लालच ,मोह ,माया और द्वेष जैसी भावनाएं नहीं होती है बल्कि प्रेम ,स्नेह और समर्पण की भावनाएं होती है जो इन्सान संतोष संतुष्टि या तृप्ति का अभिप्राय समझाता है वह व्यक्ति जीवन में हमेशा प्रसन्नता से जीता है क्योंकि ऐसा इंसान परमात्मा के समीप होता है इसलिए उसे किसी और सुख -सुविधा की आवश्कयता नहीं पड़ती है। वह परमात्मा में इस तरह से लीन होता है की उसे किसी और चीज की कमी महसूस नहीं होती है। वह संतोष को ही परम् सुख समझता है उसी को अपना धर्म। 



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